इस पोस्ट में आप पढ़ेंगे संत रविदास के दोहे हिन्दी अनुवाद सहित। संत रविदास जी 15वीं शताब्दी के भारतीय भक्ति आंदोलन के महान संत और समाज सुधारक थे। उनका जन्म 1450 के आसपास वाराणसी के पास हुआ था। उन्होने बहुत ही सरल-सादगी से जीवन जीते हुए, ईश्वर की भक्ति और मानवता का संदेश फैलाया था। वे भक्ति आंदोलन के प्रमुख थे और उनका जीवन जातिवाद, अंधविश्वास और सामाजिक असमानता के खिलाफ संघर्ष का प्रतीक था।
गुरू रविदास जी(रैदास) मध्यकाल में एक भारतीय संत कवि सतगुरु थे। इन्हें संत शिरोमणि गुरु की उपाधि दी गई है। इन्होंने जात-पात का घोर खंडन किया और आत्मज्ञान का मार्ग दिखाया। संत रविदास के दोहे (पद) समाज में एकता और समानता की प्रेरणा देते है, जिनमें से 40 दोहे (पद) सिखों के 5वें गुरू, गुरू अर्जुन देव साहिब द्वारा सिख धर्म के पवित्र ग्रंथ गुरूग्रंथ साहिब में 16वीं सदी में संपादित किये गए थे।
संत रविदास के दोहे आज भी समाज में एकता और समानता की प्रेरणा देती हैं। संत रविदास के दोहे बहुत ही प्रसिद्ध हैं, जिनमें उन्होंने मानवता और आत्मा के वास्तविक मूल्य को समझाया है। संत रविदास जी की विचारधारा थी कि प्रकृति के हर जीव-जन्तु में ईश्वर वास करता है, इसलिए हर इंसान को सभी जीवों का सम्मान करना चाहिए।
संत रविदास के दोहे हिन्दी अनुवाद सहित

- रविदास जन्म के कारनै, होत न कोउ नीच,
नर कूँ नीच करि डारि है, ओछे करम की कीच।
संत रविदास जी के दोहे का अर्थ है कि “सिर्फ जन्म से कोई नीच या छोटा-बड़ा नहीं बन जाता है, बल्कि इंसान के कर्म ही उसे नीच या छोटा-बड़ा बनाते है”
जाति-जाति में जाति हैं, जो केतन के पात,
रैदास मनुष ना जुड़ सके, जब तक जाति न जात।
प्रस्तुत दोहे का अर्थ है कि जिस प्रकार केले के तने को छिला जाए तो पत्ते के नीचे पत्ता, फिर पत्ते के नीचे पत्ता और अंत में कुछ नहीं निकलता है और इस प्रकार पूरा पेड़ खत्म हो जाता है। ठीक उसी प्रकार इंसान भी जातियों में बांट दिया गया है। इन जातियों के विभाजन से इंसान अलग-अलग बंट जाता है और अंत में इंसान भी खत्म हो जाते हैं, लेकिन ये जातियां खत्म नहीं होती हैं। इसलिए रविदास जी कहते हैं कि जब तक ये जातियां खत्म नहीं होंगी तब तक इंसान एक दूसरे से जुड़ नहीं सकते हैं।
हरि-सा हीरा छांड कै, करै आन की आस,
ते नर जमपुर जाहिंगे, सत् भाषै रविदास।
प्रस्तुत दोहे का अर्थ है कि हीरे से बहुमूल्य हरी यानी भगवान को छोड़कर अन्य चीजों की आशा करने वालों को अवश्य ही नर्क जाना पड़ता है। इसलिए संत रविदास जी कहते है कि प्रभु की भक्ति को छोड़कर इधर-उधर भटकना व्यर्थ है।
करम बंधन में बन्ध रहियो, फल की ना तज्जियो आस,
कर्म मानुष का धर्म है, सत् भाखै रविदास।
प्रस्तुत दोहे का अर्थ है कि हमें हमेशा अपने कर्म में लगे रहना चाहिए और कभी भी कर्म के फल की आशा नहीं छोड़नी चाहिए क्योंकि कर्म करना हमारा धर्म है, तो फल पाना भी हमारा सौभाग्य है।
कृष्ण, करीम, राम, हरि, राघव, जब लग एक न पेखा,
वेद, कुरान, पुरानन, सहज एक नहिं देखा।
प्रस्तुत दोहे का अर्थ है कि राम, कृष्ण, हरी, ईश्वर, करीम, राघव सभी एक ही परमेश्वर के अलग-अलग नाम हैं। वेद, कुरान, पुराण आदि सभी ग्रंथों में एक ही ईश्वर का गुणगान किया गया है, और सभी ईश्वर की भक्ति के लिए सदाचार का पाठ सिखाते हैं।
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मन चंगा, तो कठौती में गंगा।
इस दोहे का अर्थ है कि जिस व्यक्ति का मन पवित्र होता है, उसके बुलाने पर मां गंगा भी एक कठौती (चमड़ा भिगोने के लिए पानी से भरे पात्र) में भी आ जाती हैं।
जात-पात के फेर में, उरझि रहा संसार,
यहि कारण बाम्हन भयो, काहे न भयो सार।
इस दोहे का अर्थ है कि संसार जात-पात, ऊंच-नीच में उलझा हुआ है, लेकिन यह भूल गया है कि कोई भी इंसान जाति से नहीं, बल्कि अच्छे कर्मों से महान बना जाता है।
ब्राह्मण मत पूजिए जो होवे गुणहीन,
पूजिए चरण चंडाल के जो होने गुण प्रवीन।
इस दोहे का अर्थ है कि किसी को सिर्फ इसलिए नहीं पूजना चाहिए क्योंकि वह किसी पूजनीय पद पर बैठा है। यदि व्यक्ति में उस पद के योग्य गुण ही नहीं हैं तो उसे नहीं पूजना चाहिए। इसकी जगह ऐसे व्यक्ति को पूजना सही है जो किसी ऊंचे पद पर तो नहीं है लेकिन बहुत गुणवान है।
काया कोरा कपड़ा, जब लग मैला न होय,
कर्म बिना जो राखिए, पावै सम्मान न कोय।
इस दोहे का अर्थ है कि जिस प्रकार कोई कपड़ा गंदा होने से पहले कीमती होता है, ठीक उसी प्रकार इस कर्मयोगी संसार में कर्महीन इंसान कभी-भी किसी से भी सम्मान नहीं पा सकता।
मन ही पूजा मन ही धूप,
मन ही सेऊं सहज स्वरूप।
इस दोहे का अर्थ है कि निर्मल मन में ही भगवान वास करते हैं। अगर आपके मन में किसी के लिए बैर भाव नहीं है, कोई लालच या द्वेष नहीं है तो आपका मन ही भगवान का मंदिर, दीपक और धूप है। ऐसे ही पवित्र विचारों वाले मन में प्रभु सदैव निवास करते हैं।
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रैदास प्रेम नहिं छिप सकई, लाख छिपाए कोय।
प्रेम न मुख खोलै कभऊँ, नैन देत हैं रोय॥
गुरू रविदास (रैदास) कहते हैं कि प्रेम, कोशिश करने पर भी छिप नहीं पाता, वह प्रकट हो ही जाता है। प्रेम का बखान वाणी द्वारा नहीं हो सकता। प्रेम को तो आँखों से निकले हुए आँसू ही व्यक्त करते हैं।
जनम जात मत पूछिए, का जात अरू पात।
रैदास पूत सब प्रभु के, कोए नहिं जात कुजात॥
गुरू रविदास (रैदास) कहते हैं कि किसी की जाति नहीं पूछनी चाहिए क्योंकि संसार में कोई जाति−पाति नहीं है। सभी मनुष्य एक ही ईश्वर की संतान हैं। यहाँ कोई जाति, बुरी जाति नहीं है।
पराधीनता पाप है, जान लेहु रे मीत।
रैदास दास पराधीन सौं, कौन करै है प्रीत॥
गुरू रविदास (रैदास) कहते है कि हे मित्र! यह अच्छी तरह जान लो कि पराधीनता (दूसरों के अधीन, किसी और के तले दबा हुआ) एक बड़ा पाप है। पराधीन व्यक्ति से कोई भी प्रेम नहीं करता है, बल्कि सभी व्यक्ति इसको ताने मारते रहते है।
सौ बरस लौं जगत मंहि, जीवत रहि करू काम।
रैदास करम ही धरम हैं, करम करहु निहकाम॥
गुरू रविदास (रैदास) कहते है कि मनुष्य को संसार में सौ वर्ष तक जीवित रहने की इच्छा के लिए निरंतर निष्काम कर्म करते रहना चाहिए, क्योंकि व्यक्ति का कर्म करना ही मनुष्य−धर्म है।
रैदास जन्म के कारनै होत न कोए नीच।
नर कूं नीच करि डारि है, ओछे करम की कीच॥
गुरू रविदास (रैदास) कहते है कि जन्म के कारण कोई भी मनुष्य छोटा नहीं होता है। मनुष्य के तुच्छ कर्मों का पाप ही उसे छोटा बनाता है॥
मस्जिद सों कुछ घिन नहीं, मंदिर सों नहीं पिआर।
दोए मंह अल्लाह राम नहीं, कहै रैदास चमार॥
गुरू रविदास (रैदास) कहते है कि न तो मुझे मस्जिद से घृणा है और न ही मंदिर से प्रेम है। बल्कि वास्तविकता तो यह है कि न तो मस्जिद में अल्लाह निवास करता है और न ही मंदिर में राम का वास है।
प्रेम पंथ की पालकी, रैदास बैठियो आय।
सांचे सामी मिलन कूं, आनंद कह्यो न जाय॥
गुरू रविदास (रैदास) कहते है कि न तो मुझे मस्जिद से घृणा है और न ही मंदिर से प्रेम है। बल्कि वास्तविकता तो यह है कि न तो मस्जिद में अल्लाह निवास करता है और न ही मंदिर में राम का वास है।